Friday, June 18, 2010

नए ज़माने की कजरी

इन दीदाहवाई घटाओं की कोई दरोगा रबड़ी क्यूँ नहीं घोंट देता? दिल निचोड़े देती हैं.
हमारे सब यारों को रोजगार ने इधर उधर कर दिया जानो तकिये की रुई बखेर दी. वरुन हीरो बनने दुबैया उड़ गए और निखिल ने रेडियो पे गाने बजाने की लिए पुने की बस पकड़ी. दीपक मुनिराजू जंगली हिमाले पर जाने को सामान बांधे बैठे हैं. जर्मनी को शशांक का हवाई जहाज़ एक टांग पर खड़ा हैं. साँची की रवानगी दिल्ली की और हैं, इस दिल्ली पर बजर गिरें.
ब्रिंदा रूठ गयी और बनारसी बाबू आरम्भ मुंह चढ़ाये चढ़ाये फिरते हैं. दीपक गर्ग अपने आईवरी टावर की किवारियां ओंट खुदा जाने कौन सी खिचड़ी पकाने में मशगूल हैं. रुचिरा ने ध्यान लगा कर जोगनियाँ का भेष ले लिया और बंगाली मोशाय अभिसेक हेरोइन ढूँढने को मारे मारे भटकते हैं.
हाय! हमारी तो महफ़िल ही उजड़ गयी.
अब किसके मुंह लगे और किससे तमाम रात बहस करें. किसके गले में बांह डाल कनबतियां करें और हँस हँस के लोट-पोट हो. किसकी छाती पर मूंग दले और किस पर दिखाए तेवर.
निखिल के बिना अब कौन उठाये हमारे नखरे और सहे नाज़ुकमिजाजी. चाय के कप औंधे पड़े हैं और चौराहे से दौड़ दौड़ कर व्हिस्की लाने का कोई सबब नहीं. मुनिराजू की अब्सेंस में कौन कमबख्त गांजा पी पीकर कमरे को धुंवे से भरे और आरम्भ की रंग-बिरंगी चड्डियों की झंडियों के बगैर हमारा यह सूना कमरा कैसे गुलजार हो.
मस्खरियों और प्रेंक्स के ज़माने हवा हुए और उस पर उनकी यह अर्ज़ के मियाँ ज़रा सिनेमा के लिए लिखों, अब उन्हें यह कौन बतलाये के हाँ हमारी जिंदगी की सिनेमा एकाएक ब्लेक एंड व्ह्यइट हो गयी और आवाज़ फुर्र.
अब किसके लिए बम्बई आये? उसपर यह बरसात और मानसून का मनहूस ग्रे रंग, जी डूबा डूबा जाता हैं और आँखों की पुतलियाँ बिछोह की मारी खुद को ही देखने लगती हैं.

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