Friday, July 9, 2010

ज्वरग्रस्त कवि का प्रलाप

किसी गृहवधू द्वारा धूप में कुंए की मुंडेर पर विस्मृतकांसे के कलश जैसा मैं तप रहा हूँ, देवियह ज्वर जो किसी पंहसुल सा पंसलियों में फँसा है. स्फटिक के मनकों जैसी स्वेद बिन्दुओं सेभरी हैं पूरी देह.आँखों में रक्त और भ्रूमध्यक्रोध के त्रिशूल का चिन्ह. दादे के ज़माने की रजाई केसफ़ेद खोल जैसा पारदर्शी आकास.नीचे कुंए में जल परकिसी एकाकी कव्वे कीरात्रिकालीन उड़नसैर का बिम्बपड़ता हैं चन्द्रमा के ऊपर. ठहरों थोड़ी देर औरबैठे रहो, जल में झांकती अपनी श्याम मुखच्छवियाँऔर बात करों बंधुत्व से भरी मेरा क्या हैं?मैं तो मात्र ताप ही ताप हूँ.पारे से नाप सकती हो मुझेकिन्तु तुम आम्रतरू की छांहकठिन हैं नापना जिसकीशीतलता, बस अनुभव ही अनुभव हैं.तुम्हे तो होना थाअगस्त्य मुनि का कमण्डलु. तुम्हे सुनकर यों लगता हैंजैसे नहाकर आया हूँ होशंगाबाद कीनर्मदा में, ठेठ जेठ के अपरान्ह. चलो ठीक हैं, तुम्हारे पाँव व्याकुल हैं.जाओ,तिमिर...

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